Saturday, July 9, 2011

नोटबुक से --

वैज्ञानिक कीड़े मकौड़ों और पशु पक्षियों पर कुछ प्रयोग करते हैं . एक वैज्ञानिक ने दो मेढक लिए . एक मेढक को उसने काफी गरम पानी में छोड़ा , पानी के उस गरम तापमान को झेल पाने में असमर्थ वह फौरन कूद कर बाहर आ गया . अब उसने दूसरे मेढक को ठंडे पानी में डाला , मेढक उसमें आराम से तैरता कूदता रहा , उसने बाहर छलांग नहीं लगाई . वैज्ञानिक ने धीरे धीरे पानी का तापमान बढ़ाया और उसे धीरे धीरे बढ़ाते हुए बहुत गरम कर दिया . मेढक उस गरम होते तापमान का धीरे धीरे अभ्यस्त हो चुका था और जब उसका शरीर तापमान नहीं झेल पाया तो वह लगातार बढ़ते तापमान को झेल पाने में असमर्थ मर गया .

औरतों के साथ यही हुआ है . सदियों से उनका अनुकूलन किया गया है . वह हर तरह के तापमान की इस कदर अभ्यस्त हो जाती हैं कि एक नये घर परिवार के नये सदस्यों और नये माहौल के बीच घीरे धीरे बढ़ते तापमान के साथ तालमेल बिठाना सीख जाती हैं और यह तालमेल अन्तत: उनकी मर्यादित शोभायात्रा में उनकी मांग में सिंदूर के रूप में उनकी सजी हुई अर्थी में दीखता है .

लेकिन आज समय ने करवट बदली है . सभी औरतें मरती नहीं . वे देर से ही सही पर बढ़ते हुए तापमान को पहचानना सीख गई हैं . खतरे की आहट को सुन रही है . अपने जि़न्दा होने के मूल्य को समझ पा रही हैं . मानसिक यातना और बारीक हिंसा को पहचान कर उन पर सवाल खडे करती हैं और बाहर निकल आने का हौसला भी दिखाती हैं . अपनी खोयी हुई अस्मिता और मानवीय पहचान को दुबारा संवारती है .

No comments:

Post a Comment