Wednesday, July 27, 2011

शतरंज के मोहरे

सबसे सफल
वह अकेली औरत है ,
जो अकेली कभी हुई ही नहीं
फिर भी अकेली कहलाती है ....

अकेले होने के छत्र तले
पनप रही है
नयी सदी में यह नयी जमात
जो सन्नाटे का संगीत नहीं सुनती ,
सलाइयों में यादों के फंदे नहीं बुनती ,
अचार के मर्तबानों में नहीं उलझती ,
अपने को बंद दराज़ में कभी नहीं छोड़ती ,
अपने सारे चेहरे साथ लिए चलती है ,
कौन जाने,कब,किसकी ज़रूरत पड़ जाए !

अकेलेपन की ढाल थामे ,
इठलाती इतराती
टेढ़ी मुस्कान बिखेरती चलती है ,
एक एक का शिकार करती ,
उठापटक करती ,
उन्हें ध्वस्त होते देखती है !
अपनी शतरंज पर ,
पिटे हुए मोहरों से खेलती है !
उसकी शतरंज का खेल है न्यारा
राजा धुना जाता है
और जीतता है प्यादा !

उसकी उंगलियों पर धागे बंधे हैं ,
हर उंगली पर है एक चेहरा
एक से एक नायाब
एक से एक शानदार !
उसके इंगित पर मोहित है -
वह पूरी की पूरी जमात !
जिसने
अपने अपने घर की औरत की
छीनी थी कायनात |

उन सारे महापुरुषों को
अपने ठेंगे पर रखती
एक विजेता की मुस्कान के साथ
सड़क के दोनों किनारों पर
फेंकती चलती है वह औरत !
यह अहसास करवाए बिना
कि वे फेंके जा रहे हैं !
वे ही उसे सिर माथे बिठाते हैं
जिन्हें वह कुचलती चलती है !

इक्कीसवीं सदी की यह औरत
हाड़ मांस की नहीं रह जाती ,
इस्पात में ढल जाती है ,
और समाज का
सदियों पुराना ,
शोषण का इतिहास बदल डालती है !

रौंदती है उन्हें ,
जिनकी बपौती थी इस खेल पर ,
उन्हें लट्रटू सा हथेली पर घुमाती है
और ज़मीन पर चक्कर खाता छोड़
बंद होंठों से तिरछा मुस्काती है !

तुर्रा यह कि फिर भी
अकेली औरत की कलगी
अपने सिर माथे सजाए
अकेले होने का
अपना ओहदा
बरकरार रखती है !

बाज़ार के साथ ,
बाज़ार बनती ,
यह सबसे सफल औरत है !
- सुधा अरोड़ा

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Saturday, July 23, 2011

तब वे चुप हुए !

मैं
चुप हुई
बोले - घुन्नी है!

बोली
बोले - जुबान कतरनी है

सीधी चली
बोले - बनती है

टेढ़ी चली
बोले - प्यादल है

रुकी
बोले - हार गई

झुकी
बोले - रीढ़ नहीं है

बैठी
बोले - हिम्मत टूट गयी

उठी
बोले - घमंडी है

मैं मरी
वे तब चुप हुए !


 पद्मजा शर्मा

Saturday, July 9, 2011

नोटबुक से --

वैज्ञानिक कीड़े मकौड़ों और पशु पक्षियों पर कुछ प्रयोग करते हैं . एक वैज्ञानिक ने दो मेढक लिए . एक मेढक को उसने काफी गरम पानी में छोड़ा , पानी के उस गरम तापमान को झेल पाने में असमर्थ वह फौरन कूद कर बाहर आ गया . अब उसने दूसरे मेढक को ठंडे पानी में डाला , मेढक उसमें आराम से तैरता कूदता रहा , उसने बाहर छलांग नहीं लगाई . वैज्ञानिक ने धीरे धीरे पानी का तापमान बढ़ाया और उसे धीरे धीरे बढ़ाते हुए बहुत गरम कर दिया . मेढक उस गरम होते तापमान का धीरे धीरे अभ्यस्त हो चुका था और जब उसका शरीर तापमान नहीं झेल पाया तो वह लगातार बढ़ते तापमान को झेल पाने में असमर्थ मर गया .

औरतों के साथ यही हुआ है . सदियों से उनका अनुकूलन किया गया है . वह हर तरह के तापमान की इस कदर अभ्यस्त हो जाती हैं कि एक नये घर परिवार के नये सदस्यों और नये माहौल के बीच घीरे धीरे बढ़ते तापमान के साथ तालमेल बिठाना सीख जाती हैं और यह तालमेल अन्तत: उनकी मर्यादित शोभायात्रा में उनकी मांग में सिंदूर के रूप में उनकी सजी हुई अर्थी में दीखता है .

लेकिन आज समय ने करवट बदली है . सभी औरतें मरती नहीं . वे देर से ही सही पर बढ़ते हुए तापमान को पहचानना सीख गई हैं . खतरे की आहट को सुन रही है . अपने जि़न्दा होने के मूल्य को समझ पा रही हैं . मानसिक यातना और बारीक हिंसा को पहचान कर उन पर सवाल खडे करती हैं और बाहर निकल आने का हौसला भी दिखाती हैं . अपनी खोयी हुई अस्मिता और मानवीय पहचान को दुबारा संवारती है .

Sunday, May 8, 2011

माँ . तुम उदास मत होना !


माँ . तुम उदास मत होना !

माँ ने उन दिनों कवितायेँ लिखीं ,
जब लड़कियों के
कविता लिखने का मतलब था
किसी के प्रेम में पड़ना और बिगड़ जाना ,
कॉलेज की कॉपियों के पन्नों के बीच
छुपा कर रखती माँ
कि कोई पढ़ न ले उनकी इबारत
सहेज कर ले आयीं ससुराल
पर उन्हें पढ़ने की
न फुर्सत मिली,न इजाज़त !

माँ ने जब सुना ,
उनकी शादी के लिए रिश्ता आया है ,
कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से
बी कॉम पास लड़के का ,
माँ ने कहा ,
मुझे नहीं करनी अंग्रेजी दां से शादी !
उसे हिंदी में लिखना पढना आना चाहिए !
नाना ने दादा तक पहुंचा दी बेटी की यह मांग
और पिता ने हिंदी में अपने
भावी ससुर को पत्र लिखा !
माँ ने पत्र पढ़ा तो चेहरा रक्ताभ हो आया
जैसे उनके पिता को नहीं ,
उनको लिखा गया हो प्रेमपत्र
शरमाते हुए माँ ने कहा --
'इनकी हिंदी तो मुझसे भी अच्छी है'
और कलकत्ता से लाहौर के बीच
रिश्ता तय हो गया !

शादी के तीन महीने बाद ही मैं माँ के पेट में थी ,
पिता कलकत्ता,माँ लाहौर में ,
जचगी के लिए गयीं थीं मायके !
खूब फुर्सत से लिखे दोनों
हिंदी प्रेमियों ने प्रेम पत्र ,
बस , वे ही चंद महीने
माँ पिता अलग रहे ,
उस अलगाव का साक्षी बना
उन खूबसूरत चिट्ठियों का पुलिंदा ,
जो लाल कपडे में एहतियात से रख कर
ऐसे सहेजा गया
जैसे गुरु ग्रन्थ साहब पर
लाल साटन की गोटेदार चादर डाली हो
हम दोनों बहनों ने उन्हें पढ़ पढ़ कर
हिंदी में लिखना सीखा !
शायद पड़ा हो अलमारी के
किसी कोने में आज भी !
पिता छूने नहीं देते जिसे .
पहरेदारी में लगे रहते हैं ,
उम्र के इस मोड़ पर भी .
बस ,माँ जिंदा हैं उन्हीं इबारतों में ...
हम बच्चे तो
अपनी अपनी ज़िन्दगी से ही मोहलत नहीं पाते
कि माँ को एक दिन के लिए भी
जी भर कर याद कर सकें ! .....

उस माँ को --
जो एक रात भी आँख भर सो नहीं पातीं थीं ,
सात बच्चों में से कोई न कोई हमेशा रहता बीमार ,
किसी को खांसी , सर्दी , बुखार ,
टायफ़ॉयड , मलेरिया , पीलिया
बच्चे की एक कराह पर
झट से उठ जातीं
सारी रात जगती सिरहाने ...
जिस दिन सब ठीक होते ,
घर में देसी घी की महक उठती ,
तंदूर के सतपुड़े परांठे ,
सूजी के हलवे में किशमिश बादाम डलते
घर में उत्सव का माहौल रचते !

दुपहर की फुर्सत में
खुद सिलती हमारे स्कूल के फ्रॉक ,
भाईओं के पायजामे ,
बचे हुए रंग बिरंगे कपड़ों का कांथा सिलकर
चादरों की बेरौनक सफेदी को ढक देतीं ,
क्रोशिये के कवर बिनतीं ,
साड़ी का नौ गज बोर्डर !
पैसा पैसा जोड़ कर
खड़ा किया उन्होंने वह साम्राज्य ,
जो अब साम्राज्य भर ही रह गया
धन दौलत के ऐश्वर्य में नमी बिला गयी !
एल.ई.डी टी.वी पर क्रोशिये के कवर कहाँ जंचते हैं !
यूँ भी ईंट गारों के पक्के मकानों में अब
एयर कंडीशनर धुंआधार ठंडी खुश्क हवा फेंकते हैं ,
उनमें वह खस की चिकों की सुगंध कहाँ !
' मेनलैंड चाईना ' में चार पांच हज़ार का
एक डिनर खाने वाले
कब माँ के तंदूरी सतपुड़े पराठों को याद करते हैं ,
जिनमें न जाने कितनी बार जली माँ की उँगलियाँ !

माँ ,
उँगलियाँ ही नहीं ,
बहुत कुछ जला तुम्हारे भीतर बाहर
पर कब की तुमने किसी से शिकायत ,
अब भी खुश हो न !
कि तुम्हारी तस्वीर पर
महकते चन्दन के हार चढा
हम अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर ही लेते हैं
तुम्हारे क़र्ज़ का बोझ उतार ही देते हैं !

माँ ,
तुम उदास मत होना ,
कि तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया
जब तुम्हें याद किया जायेगा !
बस , यह मनाओ
कि बचा रहे सालों - साल
कम से कम यह एक दिन !

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Wednesday, March 23, 2011

23 मार्च 2011

संस्मरण

23 मार्च 1931 : उस दिन लाहौर की पूरी जनता सड़कों पर उतर आई थी !

कल रात मैं कलकता पहुंची | आज पिता ने 23 मार्च 1931 का एक वाकया सुनाते हुए कहा - बहुत बार मेरे मन में आया कि '' थड़ा '' नाम से अपनी उस दिन की यादें लिखूं | बहुत बार सोचा - तुझे कहूं कि तू लिख | पर हिम्मत नहीं हुई कि उस दिन को फिर से याद करूं | वह वाकया यह है -

'' तब मेरी उम्र 10 साल की थी . सुबह का वक्त था | झाई जी (मां) ने मुझे दो पैसे देकर कहा - जा , काक्का , मनी पलवान (पहलवान) की दूकान से एक पाव दही ले , तेरे बाऊ जी के लिए लस्सी बनानी है . मैं हथेली में दो पैसे दबाकर निकला . अपनी गली कूचा काग़जेआं का दरवज्जा जैसे ही पार किया तो देखा - मच्छी हट्टे का पूरा रास्ता - यानी रंगमहल चौक से लेकर  हलमी दरवज्जे तक , लोगों से अंटा पड़ा है . सारे लोग अपने घरों से बाहर निकल आए थे और चेहरे तमतमाये हुए थे . मैं वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया तो मेरे परिचित चाचा , जिनकी मनिहारी की दूकान थी , कहने लगे - बेटा , आगे कहां जा रहा है , घर वापस जा ! मैं वहीं खड़ा रहा . पूछा - चाचा , क्या हुआ है , लोग ऐसे क्यों घूम रहे हैं ? चाचा ने कहा –“ तुझे पता नहीं , आज सुबह भगतसिंह को फिरंगियों ने फांसी दे दी है.” भगतसिंह को वहां का बच्चा बच्चा जानता था . लोग गुस्से से इधर उधर बौखलाये से घूम रहे थे और इस फिराक में थे कि कोई पुलिसवाला दिखे तो उसे वहीं खत्म कर दें पर भीड़ के उस अथाह समुद्र में  पुलिसवाला तैनात नहीं था , कोई फिरंगी सार्जेन्ट दिखाई दे रहा था . जनता चिंघाड़ रही थी , रो रही थी . सामूहिक मातम का माहौल था .
मैं उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहा था . चाचा ने कहा - बेटा , इस थड़े ( चबूतरे ) पर खड़े हो जा . वहां चढ़कर खड़ा हुआ तो लोगों के सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे . लाहौर के सेंट्रल जेल में नियत समय से पहले ही भगतसिंह को फांसी दे दी गई थी और पूरी पुलिस फोर्स को हटा लिया गया था . अगर कोई फिरंगी सार्जेंट उस दिन दिखाई दे जाता तो मार काट हो जाती , लाशें बिछ जातीं , कोई जिन्दा बचता . जनता सड़कों पर निकल कर अपना प्रतिरोध तो जाहिर कर रही थी पर गुस्सा उतारने की जगह बेबस होकर मातम मना रही थी .
बहुत देर तक उस थड़े (चबूतरे) पर मैं खड़ा रहा , फिर उतरकर घर चला गया .  हथेली खोल कर दो पैसे मां के सामने रखे . बोली - दही नहीं लाया ? मैंने कहा - सारी दूकानें बंद हैं . बाऊजी ने पूछा - हुआ क्या ? मैंने कहा - भगतसिंह को फांसी हो गई . बाऊजी सिर पर हाथ मारकर वहीं मंजी पर बैठ गए . झाई जी ने पूछा क्या .... बाऊजी रोने लगे - यह मनहूस  हर अब रहने लायक नहीं रहा . इसने हमसे भगतसिंह की कुर्बानी ले ली . अब हम यहां क्यों रहें ! ''

और 1931 में मेरे दादा ने लाहौर छोड़ दिया , अपने बेटे का लाहौर के सनातन धर्म विद्यालय से कलकत्ता के सनातन धर्म विद्यालय में कक्षा चार में दाखिला करवाया , वह एक अलग कहानी है . आज यह वाकया सुनाते हुए पिता फिर रोए . फिर लाहौर को याद किया . पिता  की सारी पढाई लिखी कलकत्ता के आर्य विद्यालय , विशुद्धानंद सरस्वती स्कूल , सिटी कॉलेज . स्कॉटिश चर्च कॉलेज में हुई पर शादी लाहौर की लड़की से हुई और मेरा जन्म   भी लाहौर में हुआ  . 1947  में अपनी बेटी और बीवी को लेकर कलकत्ता आये , बस उसके बाद वहां जाने के हालात ही नहीं रहे पर वहां की टीसती हुई यादें पिता के सीने में आज भी दफ्न हैं . रह रह कर वे यादें टीसती हैं और हमें भी अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं .