Wednesday, March 23, 2011

23 मार्च 2011

संस्मरण

23 मार्च 1931 : उस दिन लाहौर की पूरी जनता सड़कों पर उतर आई थी !

कल रात मैं कलकता पहुंची | आज पिता ने 23 मार्च 1931 का एक वाकया सुनाते हुए कहा - बहुत बार मेरे मन में आया कि '' थड़ा '' नाम से अपनी उस दिन की यादें लिखूं | बहुत बार सोचा - तुझे कहूं कि तू लिख | पर हिम्मत नहीं हुई कि उस दिन को फिर से याद करूं | वह वाकया यह है -

'' तब मेरी उम्र 10 साल की थी . सुबह का वक्त था | झाई जी (मां) ने मुझे दो पैसे देकर कहा - जा , काक्का , मनी पलवान (पहलवान) की दूकान से एक पाव दही ले , तेरे बाऊ जी के लिए लस्सी बनानी है . मैं हथेली में दो पैसे दबाकर निकला . अपनी गली कूचा काग़जेआं का दरवज्जा जैसे ही पार किया तो देखा - मच्छी हट्टे का पूरा रास्ता - यानी रंगमहल चौक से लेकर  हलमी दरवज्जे तक , लोगों से अंटा पड़ा है . सारे लोग अपने घरों से बाहर निकल आए थे और चेहरे तमतमाये हुए थे . मैं वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया तो मेरे परिचित चाचा , जिनकी मनिहारी की दूकान थी , कहने लगे - बेटा , आगे कहां जा रहा है , घर वापस जा ! मैं वहीं खड़ा रहा . पूछा - चाचा , क्या हुआ है , लोग ऐसे क्यों घूम रहे हैं ? चाचा ने कहा –“ तुझे पता नहीं , आज सुबह भगतसिंह को फिरंगियों ने फांसी दे दी है.” भगतसिंह को वहां का बच्चा बच्चा जानता था . लोग गुस्से से इधर उधर बौखलाये से घूम रहे थे और इस फिराक में थे कि कोई पुलिसवाला दिखे तो उसे वहीं खत्म कर दें पर भीड़ के उस अथाह समुद्र में  पुलिसवाला तैनात नहीं था , कोई फिरंगी सार्जेन्ट दिखाई दे रहा था . जनता चिंघाड़ रही थी , रो रही थी . सामूहिक मातम का माहौल था .
मैं उचक उचक कर देखने की कोशिश कर रहा था . चाचा ने कहा - बेटा , इस थड़े ( चबूतरे ) पर खड़े हो जा . वहां चढ़कर खड़ा हुआ तो लोगों के सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे . लाहौर के सेंट्रल जेल में नियत समय से पहले ही भगतसिंह को फांसी दे दी गई थी और पूरी पुलिस फोर्स को हटा लिया गया था . अगर कोई फिरंगी सार्जेंट उस दिन दिखाई दे जाता तो मार काट हो जाती , लाशें बिछ जातीं , कोई जिन्दा बचता . जनता सड़कों पर निकल कर अपना प्रतिरोध तो जाहिर कर रही थी पर गुस्सा उतारने की जगह बेबस होकर मातम मना रही थी .
बहुत देर तक उस थड़े (चबूतरे) पर मैं खड़ा रहा , फिर उतरकर घर चला गया .  हथेली खोल कर दो पैसे मां के सामने रखे . बोली - दही नहीं लाया ? मैंने कहा - सारी दूकानें बंद हैं . बाऊजी ने पूछा - हुआ क्या ? मैंने कहा - भगतसिंह को फांसी हो गई . बाऊजी सिर पर हाथ मारकर वहीं मंजी पर बैठ गए . झाई जी ने पूछा क्या .... बाऊजी रोने लगे - यह मनहूस  हर अब रहने लायक नहीं रहा . इसने हमसे भगतसिंह की कुर्बानी ले ली . अब हम यहां क्यों रहें ! ''

और 1931 में मेरे दादा ने लाहौर छोड़ दिया , अपने बेटे का लाहौर के सनातन धर्म विद्यालय से कलकत्ता के सनातन धर्म विद्यालय में कक्षा चार में दाखिला करवाया , वह एक अलग कहानी है . आज यह वाकया सुनाते हुए पिता फिर रोए . फिर लाहौर को याद किया . पिता  की सारी पढाई लिखी कलकत्ता के आर्य विद्यालय , विशुद्धानंद सरस्वती स्कूल , सिटी कॉलेज . स्कॉटिश चर्च कॉलेज में हुई पर शादी लाहौर की लड़की से हुई और मेरा जन्म   भी लाहौर में हुआ  . 1947  में अपनी बेटी और बीवी को लेकर कलकत्ता आये , बस उसके बाद वहां जाने के हालात ही नहीं रहे पर वहां की टीसती हुई यादें पिता के सीने में आज भी दफ्न हैं . रह रह कर वे यादें टीसती हैं और हमें भी अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं .